मांझी की मुश्किल डगर
और सूरज उग रहा उस सम्त था अंधेरा जिधर,
मांझी की नाव भी चलती रही उस ही डगर,
लाख तूफ़ानों का वो भी सामना करता रहा,
दिल में उसके हौसलों काा जलता रहा दिया उधर...||
बैठी रही तैयार उसको निगलने को हर भंवर,
सोचता रस्ता बदलकर छोड़ दे वो ज़िद मगर,
याद आता है कि बिटिया सुनहरी भूखी है,
और चूल्हे की राख भी ठंडी पड़ी होगी उधर...||
फ़िर अंधेरे और दिन की चढ़ती धूप का सफ़र,
हो गई आसान मांझी की वो मुश्किल सी डगर,
चल दिया मंज़िल की ओर तन पर चादर ओढ़कर,
और सूरज उग रहा उस सम्त था अंधेरा जिधर...||
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